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कविवर वृन्दावन विरचित
तैसे सर्व दर्व निज गुन परजाय तथा, ___ उतपाद व्यय ध्रुव सहित प्रमुदै है ॥२०॥
दोहा। । दरव स्वगुनपरजायकरि, उतपत-चय,-धुव-जुत्त । रहत अनाहतरूप नित, यही स्वरूपास्तित्त ॥ २१ ॥ पर दरवनिके गुन २परज, तिनसों मिलती नाहिं ।। निज स्वभावसत्ताविपैं, प्रनमन सदा कराहिं ॥ २२ ॥ (५) गाथा-९७ सादृश्य-अस्तित्वका कथन ।
मनहरण। नाना परकार यहां लच्छनके भेद राजै, ___ तामें एक सत सर्व दर्वमाहिं व्याप है ।
ऐसे सरवज्ञ वस्तुको स्वभाव धर्म कह्यो, ___ जो सरव दर्वको सदृशकरि थापे है ॥ जैसे वृच्छ जातिकी सदृश और सत्ता और, __ लच्छन विशेषकरि जुदी-जुदी तापै है । मुख्य मौन द्वारतें अदोष वन्द सर्व सधै, सामान्य विशेष धर्मधारी दर्व आपै है:॥ २३ ॥
दोहा। . सहजस्वरूपास्तित्वकरि, जुदे-जुदे सब दर्व । निज-निज गुन लच्छन धरै, है विचित्र गति पर्व ॥ २४ ॥ अरु सादृश्यास्तित्वकरि, सब थिर थपन अबाध ।
सत लच्छनके गहनतें, यही एक निरुपाध ॥२५॥ १. स्वरूपास्तित्व । २. पर्याय । .