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कविवर वृन्दावन विरचित '
है जो है अनित्त कह नित्त पद, तो मनकी गति नित्त गन । । यात निरविधन त्रिधातमक, लच्छन द्रव्य प्रतच्छ भन ।। ४३ ॥
(९) गाथा-१०१ उत्पादादि द्रव्यसे पृथक
पदार्थ नहीं ।
दु मिला।
परजायविर्षे उतपादरु व्यै धुव,
____ वर्ततु हैं क्रमही करिके । निहकरि सो परजाय सदा,
नित दर्वहिमाहिं रहै भरिके ।। तिहितें सबमें वह द्रव्यहि है, .
सरवंग दशा अपनी धरिके । जिमि वृच्छत मूल न शाखा जुदे, तिमि द्रव्य लखो श्रमको इरिके ॥ ४४ ।।
मनहरण । जसे वृच्छ अंशी ताके अंश वीज, अंकुरादि ___ तामें तीनों भेद भाव ऐसे लखि लीजिये । वीजको विनाश उतपाद होत अंकुरको,
वृच्छ धुवताई ऐसी सरधा घरीजिये ॥ नूतन दरवको न होत उतपाद कहूँ, ___ यह तो असंभौ कभी चितमें न दीजिये । दर्वकी स्वभावरूप परजाय पर्नतिमें,
तीनों दशा होत वृन्द याहीको पतीजिये ॥४५॥