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कविवर वृन्दावन विरचित
इक कालानू छांडिकै, जब दुतीयपर जात । पुग्गलानु गति मंद करि, तब सो समय कहात ॥ ७० ॥ सो निरंश अति सूक्ष्म है, काल दरवकी पर्ज । याहीत क्रम चढ़ि बढ़त, सागरांत लगु सर्न ॥ ७१ ।।
प्रश्न
पुग्गलानु गति शीघ्र करि, चौदहराजू जात । समय एकमें हे सुगुरु, यह तो बात विख्यात ॥ ७२ ।। तहां संपरसत कालके, अनु असंख मगमाहिं । याहूमें शंका नहीं, श्रेणीबद्ध रहाहिं ।। ७३ ॥ पुव्वापरके भेदतें, समयमाहिं तित भेद । असंख्यातं क्यों नहि कहत, यामें कहा निषेद ॥ ७४ ॥
उत्तरजिमि प्रदेश आकाशको, परमानू परमान । अति सूच्छिम निरअंश है, मापन गज परधान ॥ ७५ ॥ ताहीमें नित बसत है, अनु अनंतको खंध । अंश अनंत न होत तसु, लहि तिनको सनबंध ॥ ७६ ॥ यह अवगाहन शकतिकी, है विशेषता रीत । तिमि तित गति परिनामकी, है विचित्रता मीत ॥ ७७ ॥ समय निरंश सरूप है, वीजभूत मरजाद । सरव- दरव परवरतई, धुव वय पुनि उतपाद ॥ ७८ ।।