________________
प्रवचनसार
[१३१
(१४) गाथा-१४० आकाशके प्रदेशका लक्षण ।
मनहरण । एक पुग्गलानु ‘अविभागी जिते आकाशमें,
बैठे सोई अकाशको प्रदेश बखान है । ताही परदेशमाहिं और पंच द्रव्यनिके,
प्रदेशको थान दान देइवेको बान है। तथा पर्म सूच्छिम प्रमानके अनंत खंध, . तेऊ ताही थानमें विराज थिति ठान है । निरवाध सर्व निज निज गुन पर्ज लिये, ऐसी अवगाहनकी शकति प्रधान है ॥ ७९ ॥
प्रश्न-छन्द नराच । अकाश दर्व तो अखंड एकरूप राजई । सु तासुमें प्रदेश मंगभेद क्यों विराजई ।। अखंड वस्तुमाहिं अंशकल्पना बनै नहीं । करै सुशिप्य प्रश्न ताहि श्रीगुरु कहैं यही ॥ ८० ॥
उसर-दोहा। निरविभाग इक वस्तुमें, अंश फल्पना होय । ' नय विवहार अधारतें, लौ न बाधा कोय ॥ ८१ । निजकरकी दो आंगुरी, नभमें देखी उठाव । .. . क्षेत्र दोको एक है, के दो जुदे . बतावः ॥ ८२ ।। नो कहि है की एक है, तो कहु कौन अपेच्छ । एक अखंड अकाशकी, के अंशनिके सेच्छ ।। ८३ ॥ .