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कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसो परदेस जाके येकी नाहिं पाइये तो,
बिना परदेस कहो कसो ताको भैस है । सो तो परतच्छ ही अवस्तु कन्यरूप भयो,
कैसे करि जाने ताके सामान्य विशेत है । अस्तिरूप वस्तुहीके होत उतपाद वय, गुन परजायमाहिं गसो उपदेस है ॥ १०३ ।।
दोहा । जो प्रदेश” रहित है, सो तो भयो अवस्त । ताके धुव उतपाद वय, लोपित होत समस्त । १०४ ॥ ताते काल दरव गहो, अनुप्रदेश परमान । तब तामें तीनों सधैं निरावाघ परधान ॥ १०५॥
मनहरण । केई कह समय परजायहीको दर्व कहो,
प्रदेशप्रमान कालअनू कहा करसै । समै ही अनादित निरंतर अनेक अंश,
परजायसेती उतपाद-पद परसें ।। तामें पुन्वको विनाश उत्तरको उतपाद,
पर्जपरंपरा सोई धौव धारा वरस । ऐसे तीनों मेद भले सधे परजायहीमें, तासों स्यादवादी कहै यामें दोष दरसै ॥ १०६ ।।
गीता । जिस समयका है नाश तिसका, तो सरवथा नाश है। जिस समयका उतपाद सो, भी सुतह विनशत जात है ।