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कविवर वृन्दावन विरचित
जो कहि है नभपच्छ गहि, तब तो सांची बात है. जो अंशनिकरि एक कहि, तब विरोध दरसात ।। ८४ ॥ इक अगुरीके छेत्रसों, दूजेसों नहि मेल । अंश अपेच्छा इक कहें, यह 'लरिकनिको खेल ॥ ८५ । जुदे जुदे जो अंश कहि, नभ अखंडता त्याग । तौ प्रति अंश असंख नभ, चहियत तितौ विभाग ।। ८६ ॥ ताते नय विवहारत, अंश कथा उर आन | कारज विदित विलोकिक, जिन आगम परमान ।। ८७ ॥ (१५) गाथा-१४१ तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय ।
मनहरण । काल बिना बाकी पंच दर्वनिके परदेश,
ऐसे जैनवैनसों प्रतीति कीजियतु है। एक तथा दोय वा अनेक विधि संख्या लिय,
अथवा असंख तक चित दीजियतु है । ताके आगे अनंत प्रदेश लगु मेद वृन्द,
जयाजोग सबमें - विचार लीजियतु है । काल दर्व एक ही प्रदेशमात्र राजनु है,..
__ ऐसो सरधान सुद्ध सुधा पीजियतु है ।। ८८ ॥ अकाशके अनंत प्रदेश हैं अचल तैसे,
धर्माधर्म दोऊके असंख थिर थपा है।
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१. बालकोंका ।