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प्रवचनसार
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एक जीव दर्वके असंख परदेश कहे,
सो तो घटें बढ़े जथा देह दा ढपा है ।। एक पुग्गलानु है प्रदेश मात्र दर्व तऊ,
मिलन सुभावसों बढ़ावै वंश 'अपा है। संख्यासंख्य अनंत विभेद लगु ऐसें पंच, दर्वके प्रदेशको अनादि नाप नपा है ।। ८९ ॥
दोहा । जिनके बहुत प्रदेश हैं, तिर्यकप्रचई सोय । सो पांचों ही दरवमें, व्यापत हैं भ्रम खोय ॥९० ॥ कालानमें मिलनकी, शकति नाहिं तिस हेत । तिर्यक परचैके विपैं, गनती नाहिं करेत ॥ ९१ ॥ 'समयनिके समुदायको, ऊरधपश्चै नाम ।
सो यह सब दरवनिवि, व्यापत है अभिराम ॥ ९२ ॥ काल दरवके निमितः, ऊरधपरचै होत । ताहीते सब दरवको, परनत होत उदोत ॥९३ ॥ पंचनिके उरधनचर्य, काल दरवतै जानु । कालमाहिं ऊरधप्रचय, निजाधार परमानु ॥ ९४ ॥ "तीरक-परचै पांचमें, निजप्रदेश सरग । निजाधीन धारे. सदा, जथाजोग बहुरंग ॥ ९५ ॥
१. अपना। २. प्रचय-समूह · ३. कर्वप्रचय । . ४. तियंकप्रचय ।