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कविवर वृन्दावन विरचित
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रागादि विभाव क्रिया अफल न होय कहूं,
याको फल चारों गतिमाहिं भरमन है ॥ जैसे परमानू रूछ चीकन सुभावहीसों, ___बंध खंधमाहिं तैसे जानो जगजन है । जाते वीतराग आतमीक पर्म धर्म सो तो,
बंधफलसों रहित तिहुँकाल धन है ॥ ८९ ॥ (२५) गा.-११७ मनुष्यादि पर्यायें जीवको क्रियाके फल
नाम कर्म आपनै सुभावसों चिदातमाके, ___ सहज सुभावको आच्छाद करि लेत, है ।
नर तिरजंच नरकौर देवगतिमाहि, ___ नाना परकार काय सोई निरमेत है ॥
जैसे दीप अगनिसुभावकरि तेलको सु-, __भाव दूर करिके प्रकाशित धरेत है। ज्ञानावरनादिकर्म जीवको सुभाव घाति,
मनुण्यादि परजाय तैसे ही करेत है ॥९० ॥ (२६) गाथा-११८ जीवस्वभावका घात कैसे ? नामकर्म निश्चे यह जीवको मनुष्य पशु.
नारकी सु देवरूप देहको बनावै है । तहां कर्मरूप उपयोग परिनवै जीव, ___ सहज सुमाव शुद्ध कहूँ न लहावै है ॥ .
जैसे जल नीम चंदनादि-माहिं गयौ सो __ प्रदेश और स्वाद निज दोनों न गहावै है ।
। नरक और । २ निर्माण करता है, बनाना है ३ करता है।