________________
१२४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
अगनि गंब रस रहित, प्रान रखना नहि है। पौनमें न दरसात, गंध नस कुए कहां है। नाहीनान-नयन-नसन, मालतको नई गहि सकत । गुन होत नहहि निज निज विषय, यही अच्छकी रीति अत:।
उत्तर-दोहा । पुद्गल दरख धेरै सदा, फन्स रूप रस गंध । सब परजायनिक विषे, परमानू, लगि संब ।। ३८ !!
हूँ कोई गुन मुख्य है, कई कोउ गुन गौन । चारनाहिं कमी नहीं, यह निइचे चितौन ।। ३९ ।। एक परजमें में अनू, प्रनई हैं पायान ! दुनिय रूप सो परिनहि, देवन दृष्टि प्रनान !! १० ॥ वरनौत बरनांतर, रसते पुनि रस और । इत्यादिक प्रनत्रत रहत, जयाजोग सब ठौर ।। ४१ !
छप्पय । चंद्रकांत पापानकाय, पृथिवी पृयित्रीतल । अत्रन ना मंत्रु, गंवगुनरहित मुशीतल . लतो वारितें होत काय पुहनी नुकताफल ।
अाणि दाल अनल होत, जर सु वायुबल ॥ इत्यादि अनेक प्रकारको, प्रनवन बहुन विवान है । बात सब परनेके विर्षे, चारों गुन परधान है ।।४२ ।।
दोहा । बातें पृथ्वी आदिके, पुद्गल्में नहिं मेद । प्रनबनमाहिं विमेद है, को गुरु करी निवेद ॥ १३ ॥
mexnAmteamRRCHSMRUITORRENCERTREMEMORROROMLOTMOMOMEPRABHATMOTHERMOREFERO.