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कविवर वृन्दावन विरचित
उत्तर-कवित्त (३१ मात्रा)। परमानू आदिक पुदगलको, इन्द्रीगम्य कहे रस हेत । जब वह खंध बंधमें ऐहै, शक्त व्यक्त करि सुगुन समेत ॥ तव सो इन्द्रीगम्य होइगो, व्यक्तरूप यो लखो सचेत । इन्द्रीनिके हैं विषय तासु गुन, तिसी अपेच्छा कथन कथेत ॥२५॥
पुनः प्रश्न-दोहा। पुदगल मूरतिवंत जिमि, तीमि है शब्द प्रतीत । तौ पुदगलको गुन कहो, परज कहौ मति मीत ॥२६॥
उत्तर।
गुनको लच्छन नित्त है, परज अनित्त प्रतच्छ । गुन होते तित शबद नित, हावा करतो दच्छ ॥ २७ ॥ जो होती गुम तो सुनो, अनू आदिके माहिं । सदा शबद उपजत रहत, सो तौ लखियत नाहिं ॥ २८ ॥ खंधनिके व्याघाततै, होत शवद परजाय । प्रथम भेद भाषामई, दुतिय अभाषा गाय ॥ २९॥
मनहरण । केई मतवाले कहैं शब्द गुन अकाशको,
तासों स्यादवादी कहै यह तो असंभौ है । आकाश अमूरतीक इन्द्रिनिके गम्य नाहिं
शब्द तो श्रवणसेती होत उपालंभी है। कारन अमूरतको कारजहू तैसो होत, ..
यह तो सिद्धांत वृन्द ज्यों सुमेरु थंभौ है ।