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प्रवचनसार
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कजरकी रेनुकरि भरी कजरौटी जथा, . तथा वृन्द लोकमें विराजै दर्वथोक है ॥ ५३ ।।
दोहा । धर्माधर्म दरव दोऊ, गति थितिके सहकार । ये दोनों जहँ लगु सोई, लोकसीम निरधार ॥ ५४ ।।
(११) गाथा-१३७ यह किस प्रकारसे संभव है ?
दोहा । ज्यों नभके परदेश हैं, त्यों औरनिके मान । ' अपदेशी परमानु ते, होत प्रदेश प्रमान । ५५ ॥
मनहरण । एक परमानूके बराबर अकाश छेत्र,
ताहीको प्रदेश नाम ज्ञानी सिद्ध करी है । परमानु आप अपदेशी है सुभावहीते,
सूछिम न यातें और ऐसी दिढ़तरी है । ताही परदेशते अनंत परदेशी नभ,
धर्माधर्म एक जीव असंख प्रसरी है । ऐसे परदेशको प्रमान औ विधान करो, स्वामी कुन्दकुन्द वृन्द बंदै मोह भरी है ॥ ५६ ॥
प्रश्न-दोहा। नभ पुनि धर्माधर्मके, कहे प्रदेश जितेक । सो तो हम सरधा करी, ये अखंड थिर टेक || ५७ ॥