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कविवर वृन्दावन विरचित
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सब कालमाहिं सो अचल है, अवगाहन गुनको धेरै । तसु परे अलोकाकाश जहँ, पंच रंच नहि संच॥ ४ ॥ (३) गाथा-१२९ क्रियावती-भाववतीरूप द्रव्यके भाव हैं उनकी अपेक्षासे द्रव्यके भेद ।
दोहा। पुदगल अरु जीवातमक, जो यह लोकाकाश । ताके थिति उतपाद वय, परनति होत प्रकाश ॥५॥ भेद तथा संघाततै, ज्यों श्रुति करत बखान । ताको उर सरधा धरो, त्यागो कुमत-वितान ॥ ६ ॥
मनहरण । क्रियावंत भाववंत ऐसे दोय भेदनितें,
दर्वनिमें भेद दोय भाषी भगवंत है । मिलि विठुरन हलचलन क्रिया है औ,
सुभाव परनति गहै सोई भाववंत है ॥ जीव . पुदगलमाहिं दोनों पद पाइयत,
धर्माधर्म काल नभ भाव ही गहत है । धन्य धन्य केवलीके ज्ञानको प्रकाश चन्द,
एकै वार सर्व सदा जामें झलकत है ॥७॥ (४) गाथा-१३० अव यह बताते हैं कि-गुण-विशेष (गुणोंके भेद ) से द्रव्योंका भेद ।
मनहरण। जीवाजीव दर्व जिन चिह्ननितें भलिभांति,
चीहे जाने जाहिं सोई लच्छन बखाना है ।