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प्रवचनसार
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जो प्रध्वंसाभावको, लोप करै तब येह । कुंभकर्मको नाश नहिं, औ अनंतता लेह ॥ ८०॥ जो अन्योन्य अभाव है, धरम दरवकेमाहि । ताहि लोपते सब दरव, एक रूप है जाहिं ॥ ८१॥ नो अत्यंताभाव है, ताहि विलो मैं ठीक । दरव न कैस हु सधि सके, दूपन लगै अधीक ॥ ८२ ॥ ताते दरवहिकेविपैं, बसै अभाव सुधर्म । वहां सहज सत्ताविपैं, थाप थिर तजि भर्म ॥ ८३ ॥ धरम अभाव जु वस्तुमें, बसत सोइ सुन मीत । पर-सरूप नहिं होत है, यह दिढ़ कर परतीत ।। ८४ ।। जो अभाव ही सरवथा, माने तु समस्त । भाव धरमको लोपिके, जो सबमें परशस्त ॥ ८५ ॥ तौ ताके मतके विपैं, ज्ञान तथा सब वैन । अप्रमान सब ही भये, साधै बाधै केन ॥ ८६ ॥ इत्यादिक दूपन लगैं, ताते हे भवि वृन्द । वस्तु अनंत धरममई, भाषी श्रीजिनचन्द ॥८७ ॥ सो सब सातों भंगते, साधो भ्रमतम त्यागि ।
अनेकांत रसमें पगो, निज-सरूप अनुरागि । ८८ ॥ (२४) गाथा-११६ वे पर्यायें बदलती रहती हैं।
मनहरण । ऐसी परजाय कोऊ नाहीं है जगतमें जो,
रागादि विभाव विना भई उतपन है ।