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प्रवचनसार
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(२२) गाथा-११४ उसमें अविरोध ही है। दर्वार्थिकनय नैन खोलकर देखिये तो,
सोई दर्व और रूप भयो नाहिं कबही । फेर परजायनय नैन तैं निहारिये तो, ___ सोई नानारूप भयो जैसो पर्ज जब ही ॥ जात नर नारकादि काय लिहि काल लहै, . ____ तासों तनमई होय रहै तेसो तवही ।
जैसे आगि एक पै प्रवेश नाना ईंधनमें,
__ ईधन अकारतें भयौ है मेद सब ही ॥७३ ॥ (२३) गाथा-११५ सप्तभंगीसे ही सर्व विवाद-शांति ।
छप्पय । दरव कथंचित अस्तिरूप, राजे इमि जानो । बहुर कथंचित नास्तिरूप, सोई परमानो ॥ होत सोई पुनि अवक्तव्य, ऐसे उर धरनी । फिर काहू परकार सोइ, उभयातम वरनी ॥ पुनि और सुभंगनिकेविपैं, जथाजोग सोई दरव । निरवाध वसत निजरूपजुत, श्रीगुरु भेद भने सरव ।। ७४ ॥
मनहरण । आपनी चतुष्टै दर्व-क्षेत्र-काल-भावकरि, __तिहूँकालमाहिं दरव अस्तित-सरूप है। सोई परद्रव्य के चतुष्टै करि नास्ति सदा,
फेर सोई एक काल उभैरूप भूप है ॥