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कविवर वृन्दावन विरचित
स्यादवादवानीकी अपेच्छासेती एकै समै,
ऐसे तीनों साधी हैं मिथ्यातकी कतरनी ॥५१॥ (११) गाथा-१०३ अब द्रव्यके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका अनेक द्रव्य-पर्यायके द्वारा विचार करते हैं।
काव्य । दरवनिका परजाय, एक प्रगटत उदोत है। . बहुरि अन्य परजाय, दशा जहँ नाश होत है ॥ . तदपि दरव नहिं नसे, नहीं उपजै तहँ जानो । सदा ध्रौव्य ही आपु रहै, निहचै परमानो ॥५२॥
छप्पय । संजोगिक परजाय, दोय परकार कहा है । इक समान जातीय, दुतिय असमान गहा है ॥ पुग्गलानु मिलि खंघ, होत सोई समान है ।
जिय पुदगल मिलि देह, सु तो असमान मान है ॥ इन परजैके उपजत नसत, दरव न उपजत नहिं नसत ।। नित ध्रौव दशा निज धारिके, सदा एक रस ही लसत ॥५३॥ (१२) गाथा-१०४ उनका एक द्रव्य-पर्यायके
द्वारा विचार ।
मनहरण । दरव स्वयमेव ही सरब काल आपहीसों,
गुनसों गुनंतर प्रनवत रहत है ! सत्त," अभिन्न तात गुननिकी परजाय,
दर्व ही है निश्चै एसे सुगुरु कहत है ॥