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प्रवचनसार
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है दरवसत्त गुन-परज-गत, गुनसत एक सुधरम-रत । परजायसत्त क्रमको धरै, यात भेद प्रमानियत ॥ ६०॥
मनहरण । जैसे एक मोतीमाल तामें तीन भांत सेत,
'सेत हार सेत सूत सेतरूप मनिया । तैसे एक दर्वमाहिं सत्ता तीन भांत सोहै,
दर्वसत्ता गुनसत्ता पर्जसत्ता भनिया । दरवकी सत्ता है अनंत धर्म सर्वगत,
गुनकी है एक ही धरमरूप गनिया । परजकी सत्ता क्रमधारी ऐसी भेदाभेद,
साधी मुनि वृन्द श्रुतसिंधुके मथनिया ॥ ६१ ॥ (१६) गाथा-१०८ सर्वथा अभाव अतद्भावका लक्षण
नहीं है। दर्व जो है अनंत धरमको आधारभूत,
सो न गुन होत यों विचार उर रखिये । तथा जो है गुन एक धर्म निजरूप करि,
सोऊ दर्व नाहीं होत निहचै निरखिये ॥ ऐसे गुन-गुनीमें विभेद है सुरूप करि,
सर्वथा जुदागी न अभाव ही करखिये । द्रव्य और गुनमें विभेद विवहार तसो, . . अनेकान्त पच्छसों विलच्छके हरखिये ॥ ६२ ॥
१ श्वेत-सफेद । २ गुरिया । .३ मयनेवाले ।