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प्रवचनसार
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(८) गाथा-७६ पुण्यजन्य इन्द्रियसुखका बहुत
प्रकारसे दुखत्व।
कुण्डलिया। इन्द्रियजनित जितेक सुख, तामें पंच विशेष । पराधीन वाधासहित, छिन्नरूप तमु भेष ॥ छिन्नरूप तसु भेष, विषम अरु बंध बढ़ावै । यही विशेषन पंच, पापहमें ठहरावै ॥ तब अबको बुधिमान, चहै इन्द्रीसुख गिंदी । तातें मजत विवेकवान, सुख अमल अतिंदी ॥ ११ ॥ (९) गाथा-७७ पुण्य-पाप कथंचित् समान हैं।
मत्तगयन्द । पुण्यरु पापवि नहिं मेद, कछू परमारथौं ठहरै है। हैं जो इस भांत न मानत है, बहिरातम बुद्धि वही गहरे है ॥ है सो जन मोह अछादित होय, भवोदधि घोर विर्षे लहरै है । है ताहि न वार न पार मिले, दुखरूप चहूंगतिमें हहरै है ।। १२ ।। है जैसे शुभाशुभमें नहिं भेद, न भेद भने सुख दुःखकेमाहीं । ताही प्रकारतें पुण्यरु पापमें, भेद नहीं परमारथठाहीं ॥
जाते जहाँ न निजातम धर्म, तहां चित्त चाहकी दाह सदाहीं । है तातें सुरिंदहिमिंद नरिंदकी, संपतिको चित्त चाहत नाहीं ॥ १३ ॥
पद्धतिका । (पद्धरी छंद) १ जे जीव पुण्य अरु पापमाहिं । माने विभेद हंकार गाहिं । है 'हेमाहनकी बेड़ी समान । हैं बंध प्रगट दोनों निदान ॥ १४ ॥ १ १. मुवर्ण और लोहा।