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प्रवचनसार
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। यो परमागममाहिं कही गुरु, और सुनो जो तहाँ नित ही है । १ देहवियाकरि भोग मनोगनिमाहि, रमै समता न लही है ॥ ३ ॥ है (४) गाथा ७२ अब शुद्धोपयोगसे विलक्षण अशुद्ध उपयोग अतः शुभ-अशुभमें अविशेषता ।
मत्तगयन्द । है जो नर नारक देव पशू सब, देहज दुःखवि अकुलाही ।
तो तिनके उपयोग शुभाशुभको, फल क्यों करिकै विलगाहीं ॥
जाते निजातम पर्म सुधर्म, अतिंद्रिय शर्म नहीं तिनपाहीं । है तो भविवृन्द विचार करो अब, कौन विशेष शुभाशुभंमाहीं ॥ ४ ॥
दोहा । शुभपयोग देवादि फल, अशुभ दुखदफल नर्क । शुद्धातम सुखको नहीं, दोनों में संपर्क ॥५॥ तव शुभ अशुभपयोगको, फल समान पहिचान । कारजको सम देखिकै, कारन हू सम मान ॥६॥ ताते इन्द्रीजनित सुख, साधक शुभउपयोग । अशुभपयोग समान गुरु, वरनी शुद्ध नियोग ॥ ७ ॥ (५) गाथा-७३ सुखाभासकी अस्ति ।
अशोक पुष्पमंजरी। वज्रपानि चक्रपानि. जे प्रधान जिक्तमानि,
ते शुभोपयोगनै भये जु सार भोग है । तासुते शरीर और पंच अच्छपच्छको,
सुपोपते बढ़ाते रमावते मनोग है ॥ १. जगन्मान्य ।