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प्रवचनसार
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* तो वह शुद्ध चिदानंद संपति,-को तिरकाल विौं न लहन्ता । । याही से मोह महारिपुकी, रमनी दुरखुद्धिको त्यागहिं संता ॥ २० ॥
दोहा । तात साध्यसरूप है, शुद्धरूप उपयोग ताके बाधक मोहको, दिढ़तर तजिवो जोग ॥२१॥ जो शुभ ही चारित्रको, जाने शिवपद हेत । तो वह कबहुं न पाय है, अमल निजातम चेत ॥ २२ ॥ (१२) गाथा-८० उसे जीतनेका उपाय
हरिगीतिका । दरव-गुन-परजायकरि, अरहंतको जो जानई । घातिदल दलमल सकल, तसु अमलपद पहिचानई ।। सो पुरुष निज नित आत-भीक स्वरूपको जान सही । तासके निहचैपनैसों, मोह नाश लहै यही ॥२३॥
मनहरण । जैसे चारै बानीको पकायो भयौ चामीकर, ___ सर्वथा प्रकार होत शुद्ध निकलंक है ।
तैसे शुद्ध ध्यानानल जोगते करममल, ___ नासिके अमल अरहंत जू अटंक है ॥ तिनके दरवमें जु ज्ञानादि विशेषन हैं,
तिनहीको गुन नाम भाषत निशंक है। एक समै मात्र कालके प्रमान चेतनके, . __ पर्नतिको भेद परजाय सो अवंक है ॥ २४ ॥