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कविवर वृन्दावन विरचित
र परिपूरन जे धर्मानुराग । अवलंबै शुद्धपयोग त्याग ।
ताके फलते अहमिन्द इन्द । नर इन्द संपदा हैं वृन्द । १५ । तहाँ भोग मनोग शरीर पाय । विलसे, सुख बहुविधि प्रमित आय । तित आकुलता दुःख मिटें नाहिं । तब कहो कहाँ” सुखी आहिं ॥१६॥ (१०) गाथा-७८ पुण्य-पापमें बंधनत्व समान ही है। निर्णय करके राग-द्वेष-दुखको हटानेकी ।
दृढता-शुद्धोपयोगका ग्रहण । .
. मत्तगयन्द। . . . : . १ जो नर या परकार जथारथ,-रूप पदारथको उर आनै ।. । रागविरोधमई परिनाम, कभी परद्रव्य वि नहिं ठाने ।। । सो उपयोग विशुद्ध धरे, सब देहज दुःखनिको नित माने । A आनंदकंद-भाव-सुधामधि, लीन रहै तिहि वृन्द प्रमानै ॥ १७ ॥
दोहा। 'आहनते 'दाहन विलग, खात न घनकी घात । त्यों चेतन तनराग विनु, दुखलव दहत न गात । १८ ॥ तातें मुझ चिद्रूपको, शरन शुद्धउपयोग । होहु सदा जानै मिटै, सकल दुखद. भवरोग ॥ १९ ॥ (११) गाथा-७९ मोहक्षयकी तैयारी
मत्तगयन्दः । पाप अरंभ सभी परित्यागिके, जो शुभचारितमें वरतंता । है जो यह मोहको आदि अनादिके, शत्रुनिको नहिं त्यागत. संता ॥
१. लोहा। २. अग्नि।