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कविवर वृन्दावन विरचित
जैसे वृच्छजातितै समान सर्व वृच्छ और,
आमनिंब आदितै विशेषता अगाध है ॥ तैसें सत्ता भावकरि सव्व दन अस्ति औ,
विशेष सत्ता लियें सब जुदे निरुपाध है । साधु होय याको जो न निह प्रतीत करे, ताको शुद्ध धर्मको न लाभ सो न साध है ॥५३॥ .
नरेन्द्र । यों सामान्य-विशेष-भावजुत, दरवनिको नहिं जाने । स्वपरभेदविज्ञान विना तब, निज निधि क्यों पहिचान ॥ तो सम्यक्त भाव विनु केवल, दरवलिंगको धारी । तप संजमकरि खेदित हो है, बरै नाहिं शिवनारी ॥५४॥
मनहरण। जैसें रजसोधा रज सोधत सुवर्न हेत,
जो न ताहि सोनाको पिछांन उरमाहीं है । तौ तो खेद वृथा तैसें यहाँ भेदज्ञान विनु,
सुपर पिछा. मुनिमुद्रा जे धराहीं है ।। तप संजमादिक कलेश करै कायकरि,
सो तो शुद्ध आतमीक धर्म न लहाही है । ताके भावरूप मुनिमुद्रा नाहिं वृन्दावन, ऐसे कुन्दकुन्द स्वामी विदित कहा ही है ॥ ५५ ॥
चौपाई। प्रथमाह श्रीगुरुदेव कहा था। १"उवसंपयामी सम्म" गाथा ।
ताकरि साम्यभाव शिव कारन । यह निहचै कीन्हों उर धारन ॥५६॥ ई १-पांचवीं गाथा।
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