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प्रवचनसार
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ओ नमः सिद्धेभ्यः । - अथ चतुर्थ-ज्ञेयतत्त्वाधिकारः ।
तत्र इष्टदेव वन्दना ।
दोहा ।
वन्दों श्रीसर्वज्ञ जो, वर्जित सकलविकार । विधनहरन मंगलकरन, मनवांछित-दातार ॥१॥ ज्ञेयतत्त्वके कथनका, अब अधिकार अरंभ । भीगुरु करत दयालचित, त्यागि मोह मद दंभ ॥२॥ कुन्दकुन्द गुरुदेवके, चरनकमल सिर नाय ।
वृन्दावन भाषा लिखत, निज परको सुखदाय ॥ ३ ॥ (१) गाथा-९३ ज्ञेयतत्व पदार्थका द्रव्य-गुण-पर्याय
स्वरूप वर्णन ।
मनहरण । जेते ज्ञानगोचर पदारथ हैं ते ते सर्व,
दर्व नाम निहचैसों पा, सरवंग हैं । फेरि तिन द्रव्यनिमें अनंत अनंत गुण,
भाषे जिनदेव जाके वचन अभंग हैं ॥ पुनि सो दरव और गुननिमें वृन्दावन,
परजाय जुदी-जुदी वसैं सदा संग हैं । ऐसी दोई भांति परजायको न जानै जोई, सोई मिथ्यामती परसमयी कुढंग हैं ॥४॥
विशेषवर्णन-दोहा ज्ञेय पदारथ है सकल, गुन-परजै संजुक्त । तातें दरव कहावहीं, यह जिनवकी उक्त ॥ ५॥