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कविवर वृन्दावन विरचित
अनेकांतरूप जिनराजको शबद ब्रह्म,
होउ जयवंत जामें सांचो शिवपंथ है । अनादिकी मोह-गांठि भेदके किनोर करै,
आतमस्वरूप जहाँ पावै भ्रम मंथ है ॥ शुद्ध उपयोग पर्म धर्म जामें लाभ होत,
छूट जाते सर्व कर्म बंधनको कंथ है । वृन्दावन वंदत मुनिंद कुन्दकुन्दजूको, से शिव होत प्रवचनसार ग्रंथ है ॥ ६३॥
दोहा। वंदों श्री जिनराजपद, शुद्ध चिदानन्दकन्द । ज्ञानतत्त्व अधिकार ग्रह, पूरन भयो अमंद ॥ ६४ ॥ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्री प्रवचनसारजीकी वृन्दावनअग्रवाल गोइलगोत्री काशीवासिकृत भाषामें तीसरा
ज्ञानतत्त्व अधिकार संपूर्ण भया ।। . 'संवत् १९०५ कार्तिक शुक्ला द्वादशी बुधवासरे वृन्दावनने लिखी, प्रथम प्रति है, सो जयवंती वरतौ । श्रीरस्तु।
१. दूसरी प्रतिमें भी इस प्रकार लिखा है।