________________
६८]
कविवर वृन्दावन विरचित
है
ओनमः सिद्धेभ्यः । अथ तृतीयज्ञानतत्त्वाधिकारः लिख्यते ।
__ मंगलाचरण । दोहा । वंदों - श्रीसर्वज्ञपदं, ज्ञानानंद सुचेत ।
जसु प्रसाद वरनन करों, इन्द्रिय सुखको हेत ॥ (१) गाथा-६९ इन्द्रियसुख और उसके साधन (शुभोपयोग)का स्वरूप ।
मत्तगयन्द । जो जन श्रीजिनदेव-जती-गुरु, -पूजनमाहिं रहै अनुरागी । चार प्रकारके दान कर नित, शील विपैं दिढ़ता मन पागी ॥ आदरसों उपवास करै, समता परिकै ममता मद त्यागी। सो शुभरूपपयोग धनी, वर पुण्यको वीज चवै बड़भागी ॥१॥ (२) गाथा-७० शुभोपयोग साधन उनका साध्य
इन्द्रियसुख।
- कवित्त (३१ मात्रा) शुभपरिनामसहित आतमकी, दशा सुनो भवि वृन्द सयान । उत्तम पशु अथवा उत्तम नर, तथा देवपद लहै सुजान ॥ थिति परिमान पंच इन्द्रिनिके, सुख विलसै तित विविध विधान । फेरि भ्रमै भवसागरहीमें, तात शुद्धपयोग प्रधान ॥२॥ (३) गाथा-७१ इसप्रकार उसे दुःखमें ही डालते हैं।
__ मत्तगयन्द । देवनिके अनिमादिक रिद्धिकी, वृद्धि अनेक प्रकार कही है । तौ भी अतिंद्रियरूप अनाकुल, ताहि सुभाविक सौख्य नहीं है।