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कविवर वृन्दावन विरचित
आपनी आभासतें सफेदी भेद दूधकी सो,
नीलवर्न दूधको करत दरसन है ॥ ताही भांति केवलीके ज्ञानकी शकति वृन्द,
ज्ञेयनको ज्ञानाकार करत लसंत है । निहचै निहारे दोऊ आपसमें न्यारे तौऊ, . व्याप्य अरु व्यापकको यही विरतंत है ॥ १३४ ॥
(३१) उपरोक्त प्रकार पदार्थों कथंचित् ज्ञानमें ।
षट्पद । जो सब वस्तु न लसें, ज्ञान केवलमहँ आनी । तो तब कैसे होय, सर्वगत केवलज्ञानी ॥ जो श्रीकेवलज्ञान, सर्वगत पदवी पायो ।
तो किमि वस्तु न बसहि, तहां सब यो दरसायो । उपचार द्वारतें ज्ञान जिमि, ज्ञेयमाहिं प्रापति कही ।। ताही प्रकारतें ज्ञानमें, वस्तु वृन्द वासा लही ।। १३५ ।
(३२) सभीको जानता, फिर भी सवसे भिन्न ।
___ मनहरण । केवली जिनेश परवस्तुको न गहै तजै,
तथा पररूप न प्रनवै तिहूँ कालमें । जातें ताकी ज्ञानजोति जगी है अकंपरूप,
छायक स्वभावसुख वेवै सर्व हालमें ॥