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कविवर वृन्दावन विरचित
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यह सुभाव है ज्ञानको, जब प्रनवत निजरूप । तब जानत जुगपत जगत, त्रिविधि विकालिकभूर ॥१७७ । ऐसे पग्म प्रकाशमहँ, शुद्ध बुद्ध जिमि अर्क । तास प्रगट जानन विपैं, कैसे उपजै तर्क ॥ १७८॥ अपने वस्तुस्वभावमें, राजै वस्तु समस्त । निज सुभावमें तर्क नहिं, यह मत सकल प्रशस्त ॥ १७९ ॥ (३८) अविद्यमान पर्यायोंका भी कथंचित् विद्यमानत्व ।
दोहा । जे परजे उपजे नहीं, होय गये पुनि जेह । असद्भूत है नाम तसु, यो भगवान भनेह ॥१८०॥ ते सब केवलज्ञानमें, हैं प्रतच्छ गुनमाल । ज्यों चौबीसी थंभमें, लिखी त्रिकालिक हाल ॥ १८१॥ (३९) उनके भी ज्ञान प्रत्यक्षत्व ।
द्र मिला। जिस ज्ञानविर्षे परतच्छ समान, भविष्यत भूत नहीं झलकै । परजाय छहों विधि द्रव्यनके, निहचै करके सब ही थलकै ॥ तिस ज्ञानकों कौन प्रधान कहै, भवि वृन्द विचार करो भलकै । वह तो नहिं पूज पदस्थ लहै, न निकालिकज्ञेय जहाँ ललकै ।
(४०) इन्द्रियज्ञानकी तुच्छता ।
_ काव्य ( मात्रा २६) जो इन्द्रिनसों भये आप सनबन्ध पदारथ । तिनको ईहादिकन सहित, जो जानत सारथ ॥