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प्रवचनसार
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रस वेदहिं क्रमहीसों सभी, छ्य उपशमकी सकति यहि । जांत परोच्छ यह ज्ञान है, पराधीन मूरति सु गहि ॥ १७ ॥
दोहा । यह परोच्छ ही ज्ञानतें, इन्द्रिनिको रस जान । चिदानंद सुख अनुभवहि, जेतो ज्ञान प्रमान ॥ १८ ॥ तात ज्ञानरु सुख दोऊ, हैं परोच्छ परतंत । मूगतीक बाधा सहित, यातें हेय भनंत ॥ १९ ॥ (५) गाथा-५७ इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है।
छन्द सवैया। जे परदस्खमई हैं इन्द्री, ते पुद्गलके वने वनाव । चिदानंद चिद्रूप भूपको, यामें नाहीं कहूं सुभाव ॥ तिन करि जो जानत है आतम, सो कि.मि होय प्रतच्छ लखाव । पराधीन तात परोच्छ यह, इन्द्रीजनित ज्ञान ठहराव ॥२०॥
मत्तगयन्द । हूँ पुद्गलदर्वमई सव इन्द्रिय, तासु सुभाव सदा जड़ जानो । है आतमको तिहुंकाल वि, नित चेतनवंत सुभाव प्रमानो ॥ है तो यह इन्द्रियज्ञान कहो, किहि भांति प्रतच्छ कहाँ ठहरानो । है तातै परोच्छ तथा परतंत्र, सु इन्द्रियज्ञान भनौ भगवानो ॥२१॥ (६) गाथा-५८ परोक्ष-प्रत्यक्षके लक्षण ।
मनहरण । परके सहायतें जो वस्तुमें उपजै ज्ञान,
सोई है परोच्छ तासु मेद सुनो कानते । जथा उपदेश वा ज्योपशम लाभ तथा,
पूर्वके अभ्यास वा प्रकाशादिक भानते ॥