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फविवर वृन्दावन विरचित
(जीवदशा ) मनहरण । अनादित महामोह मदिराको पान किये, ___ठौर टौर करत राहनेको काम है ।
अज्ञान अँघारमें सँभार न शकति निज, ___ इन्द्रिनिके लारे किये देहहीमें धाम है ॥ लपटि झपटि गहे मूरतीक भोगनिको, ___ शुद्धज्ञान दशा सेती भई बुद्धि, वाम है । ऐसी मूरतीक ज्ञान परोच्छकी लीला वृन्द,
भापी कुन्दकुन्द गुरु तिनको प्रनाम है ॥ १५ ॥ (४) गाथा-५६ इन्द्रियाँ मात्र अपने विपयोंमें भी एक साथ अपना काम नहिं कर सकती
अतः वह हेय ही हैं।
पट्पद । फरस रूप रस गंध, शब्द ये पुग्गलीक है। पंचेन्द्रिनिके जथाजोग ये, भोग ठीक हैं । सब इन्द्री निजभोगन, जुगपत गहन कर है ।
छय उपशम क्रमसहित, भोग अनुभवत रहें है ॥ ज्यों काक लखत दो नग्नतें, एक पूतली फिरनिकर । जुगपत नव मेदि सलखि सकत, त्यों इन्द्रिनिकी रीति तर ॥ १६ ।
जीव जीभके स्वादमाहिं, जिहिकाल पगें है । अन्येंद्रिनिके मोगमें न, तत्र भाव लो है ॥ निज निज रस सब गहें, जदपि यह सकति अच्छमह । तदपि न एक काल, सकल रस अनुभवते तहँ ॥
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