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कविवर वृन्दावन विरचित
और जो अकेले निज ज्ञानहीतें जानें जीव,
सोइ है प्रतच्छ ज्ञान साधित प्रमानते । जातें यह परकी सहाय विन होत वृन्द, ___ अतिंद्रिय आनंदको कंद अमलानते ॥ २२ ॥ (७) गाथा-५९ अब प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक सुख दिखाते हैं।
मनहरण । ऐसो ज्ञानहीको 'सुख' नाम जिनराज कह्यो,
जौन ज्ञान आपने सुभावहीसों जगा है । निरावर्नताई सरवंग नामें आई औ जु,
अनंते पदारथमें फैलि जगमगा है ॥ विमल सरूप है अभंग सरवंग जाको,
जामें अवग्रहादि क्रियाको क्रम भगा है । सोई है प्रतच्छ ज्ञान अतिंद्री अनाकुलित,
याहीतै अतिंद्रियसुख याको नाम पगा है ॥ २३ ॥ (८) गाथा-६० अब केवलज्ञानको भी परिणामके द्वारा दुःख होगा ? समाधान
मत्तगयन्द । १ केवलनाम जो ज्ञान कहावत, है सुखरूप निराकुल सोई । हैं ज्ञायकरूप वही परिनाम, न खेद कहूं तिन्हिके मधि होई ।। ई खेदको कारण घातिय कर्म, सो मूल नाश भयो मल धोई । १ यात अतिन्द्रिय ज्ञान सोई, सुख है निहचै नहिं संशय कोई ॥ २४ ॥