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प्रवचनसार
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छायकीय ज्ञान है यही त्रिलोकवंद वृन्द, जो समौ विषम्यमें समान भासवंत है ॥२१८ ।।
(समविषमकथन )-मनहरण । कोऊ द्रव्य काइके समान न विराजत है,
याहीत विषम सो वखानै गुरु ग्रंथमें । मति श्रुति औघ मनपर्जके विषय तेऊ,
विषम कहावत छयोपशम पंथमें ॥ सर्व कर्म सर्वथा विनाशिके प्रतच्छ स्वच्छ,
छायक ही ज्ञान सिद्ध भयौ श्रुति मंथमें । सोई सर्व दर्वको विलोकै एकै समैमाहि, महिमा न जासकी समात 'ग्रंथकथमें ।२१९ ॥
(४८) जो सभीको नहीं जानता वह एकको भी नहिं जानता।
मनहरण । तीनोंले.कमाहिं जे पदारथ विराज तिहूँ,
कालके अनंतानंत जासुमें विमेद है। तिनको प्रतच्छ एक समैहीमें एक बार,
जो न जानि सके स्वच्छ अंतर उछेद है। सो न एक दर्वहूको सर्व परजायजुत,
जानिवेकी शक्ति धेरै ऐसे भने वेद है। ताः ज्ञान छायककी शक्ति व्यक्त वृन्दावन,
सोई लखै आप-पर सर्वभेद छेद है ॥ २२० ॥ १. अवधिज्ञान । २. ग्रंथरूपी कथामें-वस्त्रमें ।