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कविवर वृन्दावन विरचित
(४९) एकको नहीं जानता वह सभीको भी नहीं जान सकता।
मत्तगयन्द। है जो यह एक चिदातम द्रव्य, अनन्त धरै गुनपर्यय सारो । है ताकहँ जो नहिं जानतु है, परतच्छपने सरवंग सुधारो । है सो तब क्यों करिके सब द्रव्य, अनंत अनंत दशाजुत न्यारो । १ एकहि कालमें जानि सकै यह, ज्ञानकी रीतिको क्यों न विचारो ॥२२१॥
मनहरण । घातिकर्म घातके प्रगट्यो ज्ञान छायक सो,
दर्वदिष्टि देखते अमेद सरवंग है । ज्ञेयनिके जानिवतें सोई है अनंत रूप,
ऐसे एक औ अनेक ज्ञानकी तरंग है ॥ तातें एक आतमाके जानेहीतें वृन्दावन, ___ सर्व दर्व जाने जात ऐसोई प्रसंग है। केवलीके ज्ञानकी अपेच्छाते कथन यह,
मथन करी है कुन्दकुन्दजी अभंग है ॥ २२२ ॥ (५०) क्रमिक ज्ञानमें सर्वज्ञताका अभाव
अरिल्ल । जो ज्ञाताको ज्ञान अनुक्रमको गंही,
वस्तुनिको अवलंबत उपजत है सही । सो नहिं नित्य न छायक नहिं सरवज्ञ है,
पराधीन तमु ज्ञान सो जन अलपज्ञ है ।। २२३ ॥