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कविवर वृन्दावन विरचित
चिंतामनि अरु कल्पतरु, ये जड़ प्रगट कहाहिं । मनवांछित संकल्प किमि, सिद्धि करहिं पलमाहि ॥ १९८ ॥ पारस निज गुन देत नहिं, नहिं परौगुन लेत । किमि ताको परसत तुरत, लोह कनकछवि देत ॥ १९९ ॥ इच्छारहित अनच्छरी, ऐसे जिनधुनि होय । उठन चलन थितिकरनमें, यहां न संशय कोय ॥ २०० ॥ (४५) कर्म विपाकका अकिंचित्करत्व
मनहरण । पुण्यहीको फल है शरीर अरहंतनिको, ____ फेरि तिन्हैं सोई कर्म उदै जब आवै है ।
तबै काय वैन जोग क्रियाको उदोत होत, ___ जथा मेघ बोले डोलै वारि बरसावै है ॥
जाते मोह आदिको सरवथा अभाव तहाँ, ___ तातै वह क्रिया वृन्द छायकी कहावै है ।
पूर्वबंध खिरो जात नूतन न बँधे पात, ___ छायकीको ऐसोई सुमेद वेद गावै है ॥ २०१॥ है
चौपाई। है चार भांति करि वंध विभागा। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागा ।
जोगद्वारतें प्रकृति प्रदेशा। थिति अनुभाग मोहकृत भेपा ॥ है है जहां मूलते मोह विनाशै। तहँ किमि थिति अनुभाग प्रकाशै । हूँ पूरवबंध उदै जो आवै । सो निज रस दैके खिरि नावै ॥२०३॥
दोहा। भानु वसत आकाशमें, जलमें जलन वसंत । किमि ताको अवलोकते, विकसित होत तुरन्त ।।२०४ ॥