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प्रवचनसार
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केवलीके आवरन नाशतें प्रतच्छ ज्ञान,
इनके परोच्छ श्रुतिद्वारतें सुवेद है । सांचे सरधानी दोऊ राचे रामरंगमाहिं, कोऊ परतच्छ कोऊ परोच्छ अछेद है ॥ १४६ ॥
तोटक । हूँ इहि भांति जिनागममाहिं कही। श्रुतिकेवलि लच्छन दच्छ गही ॥ निज आतमको दरसे परसै । अनुभौ रसरंग तहां बरसें ॥ १४७ ॥ है
दोहा। शब्दब्रह्मकरि जिन लख्यो, ज्ञानब्रह्म निजरूप । ताहीको श्रुतिकेवली, भाषतु हैं जिनभूप ॥ १४८॥ (३४ ) श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है ।
मत्तगयन्द । है श्री सरवज्ञहदम्बुधितें, उपजी धुनि जो शुचि शारद गंगा । है सो वह पुग्गलद्रव्यमई, भई अंग उपंग अभंग तरंगा ॥ है ताकहँ जो पहिचानत है, सोइ ज्ञान कहावत भावश्रुतंगा । सूत्रहुको गुरुज्ञान कहैं, सो विचार यहाँ उपचार प्रसंगा ॥१४९॥ (३५) ज्ञान और आत्माका एकत्व ।
षट्पद । जो जाने सो ज्ञान, जुदो कछु वस्तु न जानो । आतम आपहि ज्ञान, धर्मकरि ज्ञायक' मानो ॥ ज्ञानरूप परिनचे, स्वयं यह आतमरामा । सकल वस्तु तसु बोधमाहिं, निवसैं करि धामा ॥
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