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कविवर वृन्दावन विरचित
जद्यपि संज्ञा संख्यादित, भेद प्रयोजनक्श कहा । तद्यपि प्रदेशते मेद नहिं, एक पिंड चेतन महा ॥१५०॥
मनहरण । जैसे घसिहारो घास काट लोह दांतलेसों,
तहां करतार क्रिश साधन नियाग़ है । तैसे आतमावि न मेद है त्रिभेदरूप,
यहाँ तो प्रदेशतें अमेद निराधारा है ॥ संज्ञा संख्या लच्छन प्रयोजन वस्तुको,
अनन्तधर्मरूप सिद्ध साधन उचारा है । गुणी गुणमाहिं जो सरवथा विमेद माने, तहां तो प्रतच्छ दोष लागत अपारा है ॥ १५१ ॥
मत्तगयन्द। १ आतमको गुन ज्ञानते मिन्न, वखानत हैं केई मृट्ट अभागे । है दो विधि बात कहो तिनसों, वह ज्ञान विराजत है किहि जागे । हैं जो जड़ों गुन ज्ञान बसै, तब तो जड़ चेतनता-पढ़ पागे । जीवहिमें जो बसै गुन ज्ञान, तो क्यों तुम गाल बजावन लागे ॥१५२॥ ।
मनहरण । जैसे आग दाहक-क्रियाको करतार ताको,
उप्णगुन दाहक-क्रियाको सिद्ध करे है । तैसे आतमाकी क्रिया ज्ञायकसुभाव तासु,
ज्ञानगुन साधन प्रधानता आचरै है ॥ विवहार दिष्टते विशिष्ट है विभेदं वृन्द,
निहचै सुदिष्टसों अमेद मुधा झरै है ।