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प्रवचनसार
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(२८) ज्ञानमें परज्ञेयोंका प्रवेश नहीं है ।
षट्पद । ज्ञानी अपने ज्ञानभाव, ही माहिं विराजै । ज्ञेयरूप सब वस्तु, आपने छाज ॥ मिलिकर बरतें नाहि, परस्पर ज्ञेयरु ज्ञानी ।
ऐसी ही मर्याद, वस्तुकी बनी प्रमानी ॥ जिमि रूपीदरवनि को प्रगट, देखत नयन प्रमानकर । तिमि तहां जथारथ जानिके, वृन्दावन परतीति धर ॥ १३२ ॥
(२९) स्व-सामर्थ्यसे ही ज्ञाता-दृष्टा ।
मनहर । ज्ञानी ना प्रदेशतें प्रवेश करै ज्ञेयमाहिं,
तथा व्यवहारसे प्रवेश हू सो करै है । अच्छातीत ज्ञानतें समस्त वस्तु देखे जानें,
पाथरकी रेख ज्यों न संग परिहरै है ॥ जैसे नैन रूपक पदारथ विलोकै वृन्द,
तैसे शुद्ध ज्ञानसों अमल छटा भरै है । मानों सर्व ज्ञेयको उखारिके निगलि जात,
शक्त व्यक्त तासको विचित्र एसो धेरै है ॥ १३३ (३०) ज्ञान-ज्ञेयका दृष्टान्त जैसे इस लोकमें महान इन्द्रनील रत्न,
दूधमाहिं डार तब ऐसो विरतंत है । Saamwamanaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaam