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प्रवचनसार
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(२६) ज्ञान-आत्मा दोनों प्रकार सर्वगतपना ।
गीतिका । सर्वगत भगवानको, इस हेतुसों गुरु कहत हैं।
तास ज्ञान प्रकाशमें, सब जगत दरसत रहत हैं । गुन ज्ञानमय है रूप जिनका, ज्ञेय ज्ञानविर्षे मथा । तासतें सर्वज्ञ सब व्यापक, जथारथ यो कथा ॥ १२१ ॥
पट्पद । शुचि दरपनमें जथा, प्रगट घट पट प्रतिभासत । मुकुर जात नहिं तहां, तीन नहिं मुकुर अवासत ॥ तथा शुद्ध परकाग, ज्ञान सब ज्ञेयमाहिं गत । ज्ञेय तहां थित करहिं, यहू उपचार मानियत ॥ वह ज्ञान धरम है जीवको, धरमी धरम ल एक अत । या नयतें श्री सर्वज्ञको, कहें जथारथ सर्वगत ॥ १२२ ।।
दोहा । एक ब्रह्म सब जगतमें, व्यापि रयो सरवंग । अपनेही परदेशकरि, · नानारंग उमंग ॥ १२३ ॥ ऐसी जिनके कुमतिकी, उपज रही है पच्छ ।। तिनको मत शतखंडकरि, दूपत हैं परतच्छ ॥ १२४ ॥ निज परदेशनिकरि जौ, जगमें व्यापी आप । तब वह अमल समल भयो, यह तो अमिल मिलाप ॥१२५॥ कछुक अमल कछुक समल है, तो भी.वनै न बात । एक वस्तुमें दो दशा, क्यों करि चित्त समात ॥ १२६ ।।