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कविवर वृन्दावन विरचित
ताके मतमाहिं गुन ज्ञानतें अधिक हीन,
होत ध्रुवरूप वह आतमाकी गती है ॥ से तो ज्ञानहीन ते तो जड़के समान भयो,
अचेतन तामें कहां ज्ञायक-शकती है। अधिक बखाने तो प्रमाने कैसे ज्ञान चिना, ऐसे परतच्छ स्वामी दोनों पच्छ हती हैं ॥ ११३ ॥
दोहा । जथा अगनि गुन उष्णते, हीन अधिक नहिं होत । तथा आतमा ज्ञान गुन, सहित बरावर जोत ॥ ११४ ॥ अन्वय अरु व्यतिरेकता, ज्ञान आतमामाहिं । विना ज्ञान आतम नहीं, आतम विनु सो नाहिं ॥ ११५॥ जहां जहां है आतमा, तहां तहां है ज्ञान | जहां जहां है ज्ञान गुन, तहां तहां जिय मान ॥ ११६ ॥ तातें हीनाधिक नहीं, ज्ञान सुगुनते जीव । हीनाधिकके मानतें, बाधा लगत सदीव ॥ ११७ ॥ कछु प्रदेशपै ज्ञान है, कछु प्रदेशपै नाहिं । यों मानत जड़ चेतना, दोनों सम है जाहिं ॥ ११८॥ तव किमि शुद्ध समाधिमें, निरविकल्प थिर होय । द्विधा दशा निमि अनुभवै, किहि विधि शिवसुख होय ॥ ११९ ।। तातें दृष्टि प्रमारतें, बाधित है यह पच्छ । साधित है निराध ध्रुव, जीव ज्ञन यह स्वच्छ ॥ १२० ॥