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प्रवचनसार
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एक एक धरमीवि, वसत अनन्ते धर्म । मिलत न काहूसों कोई, यह सुभावगति पर्म ॥ २३ ॥ जब धरमी जिहि धरमकी, प्रनवत जुत निज शक्त । तव तासों तन्मय तहां, होत शक्ति करि व्यक्त ॥ २४ ॥ तातें आतमराम जब, धेरै शुद्ध निज धर्म । तब ताइको नाम गुरु, कह्यो धर्म तजि भर्म ॥ २५ ॥ 'अयमय गोला अगनिते, लाल होत जिहि काल । अनल ताहि तव सब कहत, देखो बुद्धि विशाल ।। २६ ।। तैसे जिन जिन धर्म करि, प्रणवहि वस्त समस्त । तन्मय तासों होहिं तब, यह सुभाव अनअस्त ॥ २७ ॥ अग्नि पृथक गोला पृथक, यह सजोगसंबंध । त्यों धर्मी अरु धर्ममें, भेद नहीं है खंध ॥ २८ ॥ सिख संबोधनको सुगुरु, देत विदित दृष्टांत । एकदेश सो व्यापता, सुनों भविक तजि भ्रांत ॥ २९ ॥ धर्मी धर्म दुहूनको तादात्मक सम्बन्ध । है प्रदेश प्रति एकता, सहज सुभाव असंघ ॥ ३० ॥
जीवके परिणाम-उपयोगमें तीन प्रकार ।
षट्पद । जब यह प्रनवत जीव, दयादिक शुभपयोग मय । अथवा अशुभ स्वभाव गहत, जहँ विषय भोग लय ।।
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लोहमयी।