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कविवर वृन्दावन विरचित
(१७) इस स्वयंभू आत्माको शुद्धत्व प्राप्तिका अत्यंत अविनाशीपना
और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व
द्र मिला। तिस ही अमलान चिदातमके, निहचै करि वर्तत है जु यही । है उतपात भयो जो विशुद्ध दशा, तिसको न विनाश लहै कब ही ।।
अरु भंग भये परसंगिक भावनिको उतपाद नहीं जो नहीं । है पुनि है तिनके ध्रुव वै उतपाद, सदीव सुंभाविकमाहिं सही ॥ ६५ ॥
दोहा । शुद्धपयोग अराधिके, सिद्ध भये सरवंग । जे अनन्त ज्ञानादिगुन, तिनको कबहुँ न भग ॥ ६६ ॥ अरु अनादिके करम मल, तिनको भयो विनाश । सो फिर कबहुं न ऊपज, जहां शुद्ध परकाश ॥ ६७ ॥ पुनि ताही - चिद्रूपके वर्तते है यह धर्म । उपजन विनशन ध्रुव रहन, साहजीक पद पर्म ॥ ६८ ॥ द्रव्यदृष्टिकर ध्रौव्य है, उपजत विनशत पर्ज । षट्गुनहानरु वृद्धि करि, वरनत श्रुति भ्रम वर्ज ॥ ६९ ॥
(१८) उत्पादादि. तीनों प्रकार सिद्ध भगवानको भी हैं।
मनहरण । जेते हैं पदारथके जातं विद्यमान तेते,
___ उतपाद व्यय भाव धेरै सदाकाल है ।