Book Title: Paumchariyam Part 2 Author(s): Vimalsuri, Punyavijay, Harman Publisher: Prakrit Granth ParishadPage 23
________________ ३७८ पउमचरियं [६१.३एत्थन्तरे महप्पा, लापरमेसरो सह बलेणं । परिसक्का रणभूमि. परओ देविन्दसमविहवो ॥३॥ नाणाउहगहियकरा. नाणाविहवाहणेस आरूढा । नाणाविहवरचिन्धा. आवडिया समरसोडीरा ॥४॥ सर-झसर-सत्ति-सबल-करालकोन्तेहि खिप्पमाणेहिं । जह निम्मलं पि गयणं, खणेण गहणं कयं सयलं ॥ ५॥ तुरयारूढेहि समं, आसवलम्गा तओ समावडिया । जोहा नोहल्लीणा, रहिया रहिए विवाएन्ति ॥ ६ ॥ मत्तगइन्दत्था वि य, अभिट्टा कुञ्जरोवरिठियाणं । एवं समसरिसबला, आलग्गा समरकम्मन्ते ॥ ७ ॥ तं वाणराण सेन्नं, भग्गं चिय रक्खसेहि परहुत्तं । नीलाइकइभडेहि, पुणरवि आसासियं सर्व ॥ ८॥ निययबलपरिभवं ते, दटुं लङ्काहिवस्स सामन्ता । जोहन्ति सवडहुत्ता, अरिसेन्नं सत्थपहरेहिं ॥९॥ सुय-सारण-मारीजी-चन्दका विज्जुवयणमाईया । जीमूतनायको वा, कयन्तवयणा समरसूरा ॥ १० ॥ तं पिय संगाममुहे, भग्गं कइसाहणं पलोएउं । सुग्गीवसन्तिया जे, समुट्टिया सुहडसंघाया ॥ ११ ॥ तं वाणरेहि सेन्नं, दूर ओसारियं अइबलेहिं । दट्ट ण रक्खसवई, वाहेइ रहं सवडहुत्तं ॥ १२ ॥ अह तेण तक्खणं चिय, पवंगमा गरुयसत्थपहरेहिं । भग्गा पलोइऊणं, विहीसणो अहिमुहो हूओ ।। १३ ॥ तं भणइ रक्खसिन्दो, अवसर मह दिट्ठिगोयरपहाओ । न य हवइ जुत्तमेयं, हन्तुं एकोयरं समरे ॥ १४ ॥ अह तं भणइ कुमारो, विहीसणो अमरिसं तु वहमाणो । उभयबलाण समक्खं, न देमि पट्टि सुकन्त छ ॥ १५ ॥ पुणरवि भणइ दहमुहो, दुट्ठ! तुमं उज्झिउं निययवंसं । भिच्चत्तं पडिवन्नो, पुरिसाहमपायचारीणं ॥ १६ ॥ पणरवि भणइ सुभणिओ. विहीसणो रावणं महसुणेहि । वयणं हियं च पच्छं, सुहनणणं उभयलोएसु ॥ १७ ॥ एवगए वि जइ तुमं, इच्छसि धण-रज्जसंपयं विउलं । सह राहवेण पीई, करेहि सीया समप्पेहि ॥ १८ ॥ टूटकर दो टुकड़े हो पृथ्वी पर गिर पड़ा हो, ऐसा प्रतीत होता था। (२) इसी बीच देवेन्द्रके समान वैभववाला महात्मा लंकेश रावण सैन्यके साथ रणभूमिकी योर चला। (३) नानाविध श्रायुध हाथमें धारण किये हुए, अनेक प्रकारके वाहनोंमें आरूढ़ और नाना प्रकारके उत्तम चिह्नवाले युद्धवीर भी श्रा पहुँचे । (४) बाण, झसर, शक्ति, सब्बल तथा भयंकर भाले फेंकनेवाले उन्होंने निर्मल आकाशको भी क्षगभरमें पूरा ग्रहण लगा हो ऐसा कर दिया। (५) बादमें अश्वारोहियोंके साथ अश्वारोही भिड़ गये तथा सैनिकोंके साथ सैनिक और रथारोहियोंके साथ रथारोही लड़ने लगे (६) मदोन्मत्त हाथियोंके ऊपर आरूढ़ योद्धा भी हाथियों पर बैठे हुओंके साथ भिड़ गये। इस तरह समान एवं सदृश बलवाले वे युद्ध में लग गये। (७) राक्षसों के द्वारा पराजित और भग्न वानरोंकी उस सारी सेनाको नील आदि कपि-सुभटोंने पुनः आश्वस्त किया । (८) अपनी सेनाके पराभवको देखकर लंकाधिप रावणके सामन्त शत्रुसैन्यकी थोर अभिमुख होकर शस्रोंके प्रहार द्वारा युद्ध करने लगे। (६) शुक, सारण, मारीचि, चन्द्र, अर्क, विद्युद्वदन और जीमूतनायक आदि यमके जैसे भयंकर बदनवाले तथा युद्ध में शूर सुभटों द्वारा युद्धभूमिमें वानरसैन्यके विनाशको देखकर सुग्रीवके जो सुभट-समुदाय थे वे उठ खड़े हुए । (१०-११) अति बलवान् वानरों द्वारा वह राक्षससैन्य दूर खदेड़ दिया गया। यह देखकर राक्षसपतिने रथ सम्मुख चलाया। (१२) उसने फौरन ही भारी शस्त्रप्रहारोंसे बन्दरोंको भगा दिया। यह देखकर विभीषण सामने आया । (१३) उसे राक्षसेन्द्रने कहा कि मेरे दृष्टिपथमेंसे तू दूर हट । युद्धमें सहोदर भाईको मारना ठीक नहीं है। (१४) इस पर क्रोध धारण करनेवाले कुमार विभीषणने कहा कि सुकान्ताकी भाँति दोनों सैन्योंके समक्ष मैं पीठ नहीं दिखाऊँगा । (१५) रावणने पुनः कहा कि, दुष्ट ! तूने अपने वंशको छोड़कर पादचारी अधम मनुष्योंकी नौकरी स्वीकार की है। (१६) इस पर भलीभाँति प्रतिपादन करनेवाले विभीषणने रावणसे कहा कि उभय लोकमें सुखजनक, हितकर और पथ्य ऐसा मेरा वचन तुम सुनो । (१७) इतना होने पर भी यदि तुम विपुल धन, राज्य एवं सम्पत्ति चाहते हो तो रामके साथ प्रीति करो और सीताको सौंप दो। (१८) अपने अभिमानका त्याग करके रामको जल्दी ही प्रसन्न करो। एक स्त्रीके कारण अयशरूपी _Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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