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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 32
समान ही इस एकात्मता की धारणा को उस युग की सामान्य विचारधारा से ग्रहण किया था, किंतु सद्गुण एवं हित की इस एकात्मता से व्यावहारिक निष्कर्ष निकालना और लोगों को इन निष्कर्षों से परिचित कराना सुकरात की तर्कपद्धति का प्राथमिक नैतिक कार्य था। जैसा कि झेनोफोन ने बताया है कि सुकरात की विधायक नैतिक शिक्षाओं का सार उनकी सत् की गम्भीर धारणा और मानवीय शुभ के सामान्यतया स्वीकृत विभिन्न घटकों की आवश्यक संगति में है। सभी लोग यह मानते हैं कि व्यक्ति के आत्मिक शुभों के सर्वोच्च मूल्यों के प्रति उनकी अटल निष्ठा थी। आज के समान ही उस युग में भी व्यक्ति के लिए ये आत्मिक शुभ उपलब्धि की अपेक्षा प्रशंसा के विषय ही अधिक थे। समस्त व्यावहारिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने वाले एक अयुक्तिसंगत आदर्श के साथ ही साथ इस धारणा से गुणों की ऐसी एकात्मता उत्पन्न होती है, जो सुकरात के व्यक्तित्व एवं शिक्षाओं, दोनों के द्वारा अभिव्यक्त होती है और जिन्हें प्लेटो के अनेक संवादों में अतुलनीय प्रभावशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। यहां हम आत्मत्याग को आत्मसम्मान के रूप में देखते हैं, जो उदात्त आध्यात्मिकता एवं स्वाभाविक विवेक के साथ मिश्रित है । चरित्र के उदारीकरण के लिए एक अदम्य उत्साह और उस उदात्त चरित्र को स्वयं में और दूसरे में प्रकट करने की एक सच्ची लगन है । यद्यपि एक शांत परिहासात्मक व्यंग्य के कारण यह बात पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो पाई है। लोकाचार के कर्त्तव्यों की स्पष्ट एवं दृढ़तापूर्ण स्वीकृति के साथ एक गहन एवं सूक्ष्म संदेहवाद उपस्थित है, यद्यपि यह संदेहवाद उस झिलमिलाती ज्योति के समान है, जो कि अपने विनाशकारी गुणों को खो चुकी है। हमारा सम्बंध सुकरात के व्यक्तित्व से नहीं, वरन् उनके सिद्धांतों से है, किंतु व्यक्ति और उसके सिद्धांतों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। नैतिक चिंतन के इतिहास की दृष्टि से भी यह मानना महत्वपूर्ण है। यद्यपि साध्य के प्रति दृढ़निष्ठा की आवश्यकता को एवं अंतदृष्टि की पूर्णता को सुकरात के सिद्धांतों में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है, तथापि गुण उनके सारे जीवन में अधिक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुए हैं। वस्तुतः ये गुण उनके जीवन में इतनी पूर्णता के साथ उपस्थित थे कि जिसके कारण वे इनकी उपेक्षा करने की गलती कर बैठे। उनके बारे में यह सत्य है कि वे जिसको सुंदर एवं शुभ मानते थे, उसको अनिवार्य रूप से करते भी थे। जब दूसरे लोग शुभ को जानते हुए भी उसके विरुद्ध आचरण करते थे, तब उनके सम्बंध में सुकरात का सरलतम निर्णय यह होता था कि उन्हें वस्तुतः सच्चा ज्ञान नहीं है। अमूर्त शुभ का कोई