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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/295 करता है, तथापि अंतःप्रज्ञा के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से यह जान लेना बहुत ही कम सम्भव है कि किस प्रकार के कार्य को करना चाहिए। अपेक्षित कार्य की औचित्यता की कोई अंतः प्रज्ञा नहीं है। सच्चे नैतिक-निर्णय में परिणामों की कमी या अधिकता एवं सरलता या जटिलता की गणना के किसी रूप की अपेक्षा है। ऐसी गणना को किंकर्त्तव्यमीमांसा के नाम से जाना जाता है। नीति का कोई भी सिद्धांत, जो नैतिक-जीवन के वास्तविक तथ्यों में निकट होगा, अवश्य ही किंकर्तव्यमीमांसा को न केवल संभावित, अपितु
अपरिहार्य मानेगा। पालसन (1846-1903)
__रशडाल के बहुत पूर्व फ्रेट्रिक पालसन ने भी नीतिशास्त्र की एक विवेचना प्रस्तुत की थी, जो कि एक सामान्य दृष्टिकोण के विकास की दृष्टि से रशडाल के समान ही थी। पालसन की पुस्तक नीतिशास्त्र फ्रेंक के द्वारा (सन् 1899) में अनुदित हुई और उसका व्यापक रूप से प्रसार हुआ पालसन के अनुसार, नीतिशास्त्र उन शुभों का सिद्धांत है, जो कि अपनी एकता में पूर्ण जीवन का निर्माण करते हैं और सद्गुणों और दुर्गुणों तथा कर्त्तव्यों का सिद्धांत आचरण के प्रकारों के रूप में पूर्णता को प्राप्त करने का साधन है। उसकी पद्धति मुख्यतया अनुभवात्मक है। वह नैतिकता में भावना और बुद्धि के योगदान के संदर्भ में रशडाल से मतभेद रखता है। शुभ जीवन क्या है? इस प्रश्न का निराकरण अपने अंतिम विश्लेषण की दृष्टि से प्रत्यक्ष-निर्विवाद भावना के द्वारा ही होगा, जिसमें सत्ता का आंतरिक-सार-तत्त्व स्वतः ही अभिव्यक्त होता है। नैतिकता में बुद्धि का स्थान केवल एक साधन के रूप में है। परम शुभ के स्वरूप का निर्धारण वस्तुतः बुद्धि के द्वारा नहीं, अपितु संकल्प के द्वारा होता है। बुद्धि, जैसी की वह है, निरपेक्ष रूप से मूल्यों के सम्बंध में कुछ भी नहीं जानती है। वह सत्य और असत्य में और वास्तविक और अवास्तविक में अंतर करती है, लेकिन शुभ और अशुभ (अच्छाई या बुराई) में नहीं। रशडाल ने भावना को नैतिक-निर्णय के आधार के एक अंग के रूप में स्वीकार किया था और (दूसरे अंग के रूप में) अंतःप्रज्ञा की चर्चा भी की थी, लेकिन उसने दोनों के सम्बंध पर कोई विचार नहीं किया, अर्थात् यह नहीं बताया कि भावना एवं अंतःप्रज्ञा - इन दोनों में वस्तुतः अंतर है। इस प्रकार, गंभीर विचार करने पर पालसन और रशडाल में मतभेदों का समाधान किया जा सकता है। जिस प्रकार मूर का कथन है कि एक विधेय के रूप में शुभ अपरिभाष्य है, इसी प्रकार पूर्ण जीवन (सर्वोत्तम जीवन) के अपने चरम प्रत्यय के