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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/304 तक उन्हें एक परिकल्पनात्मक-निर्णय मानने पर निर्भर करता है। सामान्य धारणाएं वैयक्तिक-परिस्थितियों को समझने में सहायक होती हैं। वर्गीकरण उन संभावित लक्षणों को बता सकता है, जिन्हें किसी व्यक्ति को विशेष घटना के अध्ययन में देखना चाहिए। इस प्रकार, सामान्य धारणाओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति से ध्यान अलग हटाकर वैयक्तिक-परिस्थितियों की खोज की विकासशील एवं प्रभावशील पद्धति के प्रति केंद्रित किया गया। हम सामान्य के द्वारा स्वास्थ्य, सम्पत्ति, शिक्षा, न्याय एवं दयालुता की खोज या उपलब्धि नहीं कर सकते। कार्य सदैव ही विशिष्ट, यथार्थ वैयक्तिक और सकल होता है, अतः कार्यों के प्रति निर्णय भी इसी प्रकार विशिष्ट होना चाहिए।
इस प्रकार, बुद्धि का कार्य विविक्त के प्रति प्रयासों के निर्देशन और एक सामान्य नैतिक-आदर्श की खोज नहीं, अपितु वर्तमान आंतरिक-शुभों का विवेक और उनकी उपलब्धि के विभिन्न अपरोक्ष साधनों की खोज करना है। यहां शुभों को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए। डिवी प्राकृतिक एवं सामाजिकशुभों की चर्चा करता है, किंतु उनमें नैतिक-मूल्यों की दृष्टि से कोई विशेष अंतर प्रतीत नहीं होता है। नैतिक-ज्ञान का अलग-से कोई प्रतिपाद्य विषय नहीं है और इसलिए एक विविक्त नीतिविज्ञान जैसी कोई वस्तु नहीं है। उचित के अंतिम प्रमापक पर अथवा मनुष्य के अंतिम साध्य के स्वरूप पर चिंतन करने की अपेक्षा किसी को दैहिकशास्त्र, मानवशास्त्र और मनोविज्ञान का उपयोग उस सबकी खोज के लिए करना चाहिए, जिसके द्वारा अपनी आंगिक-शक्तियों और क्षमताओं की खोज की जा सके।
सामाजिक-कलाएं, कानून, शिक्षा, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का उपयोग सभी के भाग्य के सुधार की एक बौद्धिक-पद्धति के साधन के रूप में करना चाहिए, यद्यपि वह शुभों के साध्यात्मक और साधनात्मक-वर्गीकरण की तीव्र आलोचक है। वह उसे एक ऐसा वर्गीकरण मानता है कि जिसके व्यावहारिक परिणाम बहुत ही खतरनाक हैं। कोई भी व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता है कि आलोचनीयभौतिकवाद और हमारे आर्थिक-जीवन की नृशंसता का कितना अंश आर्थिक-साध्यों को केवल साधनात्मक मानने के कारण है। जब उन्हें भी दूसरे मूल्यों के समान चरम मूल्य और स्वतःसाध्य स्वीकार कर लिया जाता है, तब यह देखा जा सकेगा कि वे आदर्शीकरण के योग्य हैं और यह कि यदि जीवन मूल्यवान् है, तो वे भी अवश्य ही