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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/305 आदर्शात्मक और आंतरिक-मूल्य से युक्त होंगे।
डिवी इस बात पर बल देना चाहता है कि मूल्यों की अनुभूति एक प्रक्रिया के रूप में होती है। एक ऐसी सतत प्रक्रिया के रूप में, जो कि संघर्षशील और उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील है। कोई भी स्थिति मात्र साधनात्मक नहीं है। साध्य कोई ऐसा अंतिम छोर या स्टेशन नहीं है, जहां तक पहुंचना है। यह अस्तित्ववान् परिस्थितियों के परिवर्तित होते रहने की नियमित व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। प्रथमतः, आवेगों और मूल-प्रवृत्तियों पर आधारित आचरण विकसित होते हुए सामाजिक-नियमों और सामान्य धारणाओं के प्रभाव-क्षेत्र के अधीन आया, अंततः इसे सत् के सामान्य सिद्धांतों के प्रकाश में एक पूर्ण के रूप में देखा गया। एक विचार, जहां तक अनुभवों की एक संगतिपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करता है, वहां तक सत्य है, लेकिन किसी भी स्थिति में ऐसा सिद्धांत अपने-आप को अंतिम रूप से प्रतिस्थापित नहीं कर सकता। नैतिक-प्रत्यय के सामान्य लक्षण ये हैं कि प्रत्येक व्यक्ति एक उत्तरदायी-कर्ता के रूप में अपने प्रति, दूसरे व्यक्तियों के प्रति
और सम्पूर्ण समाज के प्रति अपने दायित्वों के अंतर्गत खड़ा हुआ है और उसके ये दायित्व सामान्य शुभ की (आबंध) आवश्यकताओं के द्वारा परिभाषित किए जाते हैं। नैतिक-प्रगति सहज समूहों की मांगों की स्वीकृति और उनके अनुपालन से लगाकर एक व्यापक और संगतिपूर्ण आदर्श से अनुशासित होने तक है। बाह्य-परम्परागत नियम नैतिक-विधानों के विशिष्ट लक्षण से युक्त नहीं हैं। दूसरे यह कि कुछ नैतिकदायित्व (आबंध) मान्य किए गए हैं, लेकिन वे किसी सामान्य नैतिक-सिद्धांत पर आधारित नहीं है। इस बिंदु तक आदिम-सामाजिक-रूढ़ियों की नैतिकता का प्रभाव है, जिसमें प्रेम और घृणा अथवा सामाजिक और असामाजिक-आवेग मिले हुए हैं। तीसरी अवस्था में चरित्र और आचरण के नैतिक-सिद्धांतों और आदर्शों का निर्माण किया गया है, यहां नैतिक-प्रगति उस संघर्ष के द्वारा होती, जिसमें जीवन की स्थितियां अधिकाधिक आत्मा के प्रभुत्व के अधीन आती हैं। यहां नैतिक प्रगति परिवेश की प्राकृतिक-स्थितियों का अपरिहार्य परिणाम नहीं होती, लेकिन आंतरिक अंतर्निहित आध्यात्मिक-शक्ति के प्रकार पर निर्भर होती है। नैतिक-प्रगति (प्राकृतिक) अंधशक्तियों के खेल से प्रारम्भ होकर मानवता के आत्मचेतन विकास तक जाती है। अपने ग्रंथ बौद्धिक शुभ' (1921) में हाबहाउस ने सामान्य नैतिक-सिद्धांत की वह रूपरेखा प्रस्तुत की है कि जिस पर उसका नैतिकता के इतिहास का दार्शनिक-चिंतन