Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 301
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 299 उपस्थित सामान्य है। वस्तुतः, विशेष में सामान्य की उपस्थिति ही वह तथ्य है, जिससे विशेष का अनुमोदन होता है। मूल्य का वाहक या मूल्य - विषय (इसे नैतिकमूल्य कहना कम विवादास्पद और समुचित होगा) सदैव ही एवं अंतिम रूप से व्यक्तित्व ही है, यह परवर्ती व्याख्या एक अस्तित्ववान् एवं शाश्वत व्यक्तित्व की एक परिकल्पना करती है। यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि सिवाय क्षणिक विशिष्ट वास्तविक अनुभवों के मूल्यों के अस्तित्व की स्वीकृति के लिए क्या कोई पूर्ण प्रमाण किया जा सकता है। यह मान लिया गया है कि हम अस्तित्व की स्वीकृति मात्र से इस कथन की ओर नहीं जा सकते हैं कि जो अस्तित्व रखता है, वह मूल्यवान् भी है। सामान्य से विशेषों (अनुभूत नैतिक मूल्यों) की ओर तथा उसके शाश्वत अस्तित्व एवं एक सर्वोच्च व्यक्तित्व में उनकी पूर्णता की ओर जाना काल्पनिक ही प्रतीत होता है। जीवन के विस्तार के रूप में नैतिक - साध्य पर पिछले पचास वर्षों के अधिकांश चिंतन में अनुभव के गत्यात्मक - स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है। शुभ के स्वरूप के खोज के हेतु नैतिक-साध्य-सम्बंधी प्रारम्भिक धारणाओं को अपूर्ण मानकर लेखकों ने एक ऐसी अतिव्यापक धारणा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें आंतरिक- शुभ के सभी पक्षों को समाहित किया जा सके और जो अनुभव के गत्यात्मक-स्वरूप को मान्य कर सके। इसे जीवन के अंतर्गत खोजने का सोचा गया है। युग प्रारम्भ में ही जीन मेरेय ने अपने ग्रंथ (1885) यह तर्क किया है कि वस्तुतः नैतिकता को ईश्वरीय सत्ता अथवा निरपेक्ष- बुद्धि या सामाजिकपरम्पराओं पर पूर्णतया आधारित नहीं किया जा सकता है। अपेक्षाकृत रूप से यह आवेगों से निकटतया सम्बंधित हमारी सत्ता की आंतरिक शक्ति का ही उत्पादन है, यही आचरण नैतिक है, जो दी हुई परिस्थितियों में जीवन को अपनी सम्पूर्ण सीमाओं तक व्यापक बनाता है । सम्पत्ति और जीवन के विस्तार की धारणाओं को अलवर्ट स्वेतअर ने अपने ग्रंथ (सभ्यता और नीति) (1923) का मूलभत सिद्धांत बताया है। रूडल्फ यूकेन (1846-1926) रूडल्फ यूकेन के नैतिक-दर्शन में जीवन के स्वरूप के निर्माण का एक ऐसा प्रयास देखा जाता है, जो कि मानवीय - प्रकृति की सर्वाधिक और उच्चतम मांगों के अनुरूप होगा। वह जीवन के गत्यात्मक - स्वरूप पर बल देता है और उसका दर्शन सक्रियतावाद कहलाता है, लेकिन क्रियाएं उन प्रेरकों पर, जो कि उन्हें प्रेरित करेगा -

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