Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

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Page 295
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/293 सामान्य-बुद्धि इस बात से इंकार करेगी कि तात्कालिक-रूपसे अधिक सुख-अवस्थाएं सदैव ही उत्तम होंगी। मूर सिजविक को बौद्धिक-स्वहित और बौद्धिक-लोकहित के सम्बंध के प्रसंग में भी अस्पष्टता का दोषी बताता है। यह कहना स्पष्ट ही विरोधाभास से युक्त है कि एक व्यक्ति का शुभ एकमात्र शुभ होगा। इस विरोधाभास का निरसन केवल यह मानकर नहीं किया जा सकता कि वही आचरण दोनों साध्यों को प्राप्त कर लेगा। मूर का दृष्टिकोण प्रतिज्ञानवाद (सहजज्ञानवाद) से मिलता है, क्योंकि उसका दृष्टिकोण परमसाध्य के रूप में स्वतः शुभ के अपरोक्ष बोध पर आधारित है, लेकिन उसकी स्थिति मूलतया उस प्राथमिक-सहजज्ञानवाद से भिन्न है, जो कि यह मानता है कि कार्यों के नियम निश्चित ही अंतःप्रज्ञात्मक हैं। वस्तुतः, कर्त्तव्य से सम्बंधित कोई भी तर्कवाक्य (कथन) स्वतः उपस्थित हो, तो नैतिक-निर्णय नहीं किया जा सकता, लेकिन वह भावना, जो कि नैतिक-निर्णय का आधार है, विशेष रूप से नैतिक या उत्तम प्रकार की नहीं है। रशडाल ने किसी विशेष नैतिक संवेग का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। नैतिक-निर्णय बौद्धिक-विद्या का उपयोग करते हैं और बुद्धि के विविधरूपों में बौद्धिक-विद्या तो एक ही होगी, यद्यपि विकास के विभिन्न स्तरों पर उसमें ज्ञान की अभिव्यक्ति स्पष्टता और पूर्णता की कम या अधिक मात्रा हो सकती है। परम शुभ या परम मूल्य किसी रूप में अंतःप्रज्ञा के द्वारा ज्ञात है, यद्यपि यह कहा जा सकता है कि रशडाल यह बता पाने में समर्थ नहीं था कि इस अंतःप्रज्ञा का स्वरूप मुख्यतया बौद्धिक है। रशडाल के आदर्श-उपयोगितावाद का मूल सिद्धांत यह है कि उचितता या अनुचितता उसके कल्याण या शुभ, जो कि विभिन्न घटकों से निर्मित है और जिसका सापेक्षिक-मूल्य अंतःप्रज्ञा के द्वारा ज्ञात है, की अभिवृद्धि के लिए प्रवृत्त होने या नहीं होने पर निर्भर है। साध्य सुख नहीं है, यद्यपि उसमें सुख निहित है, परंतु कुछ सुखों को शुभ की दृष्टि से बुरा भी कहा जा सकता है। पुनश्च, नैतिक-निर्णय अंततोगत्वा साध्यों से सम्बंधित हैं और एक असुखवादी-दृष्टिकोण के लिए साधनअवसर साध्य के अंग होते हैं। अनेक शुभ ऐसे भी हैं, जिन्हें नीतिशास्त्र को अवश्य ही स्वीकार करना होता है और जो बिना एक-दूसरे को प्रभावित किए साथ-साथ नहीं रहते हैं। ये सभी शुभ एक आदर्श शुभ-जीवन के अंग, घटक या पक्ष हैं। इस आदर्श शुभ जीवन में उसके प्रत्येक अंग या घटक का यह कर्त्तव्य है कि वह सभी के लिए उस जीवन की अभिवृद्धि करे। मूल्यों का पृथक्करण अमूर्तिकरण का एक रूप है।

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