Book Title: Nitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Author(s): Henri Sizvik
Publisher: Prachya Vidyapeeth

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 292 तक कि यदि यह हमेशा इच्छा के कारणों के रूप में उपस्थित रहता है, तो भी यह तथ्य इसे शुभ मानने के लिए अपने-आप में सक्षम नहीं होगा। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि हम अपने सामने स्पष्टतया यह प्रश्न रखें कि क्या सुख की चेतना ही एकमात्र शुभ है? तो इसका उत्तर अवश्य ही नकारात्मक होगा और इसके साथ ही सुखवाद के अंतिम बचाव का यह प्रयत्न भी धराशायी हो जाएगा, तब स्वतः शुभ ( आंतरिक शुभ) क्या है ? यहां एक अंतर को स्पष्ट करने की आवश्यकता है। हम स्वतः मूल्यों के चरम नैतिक निर्णयों में शुभ का एक विधेय के रूप में उपयोग करते हैं। ऐसा विधेय के रूप में शुभ अंतिम है। यह अपने स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य पद के रूप में व्याख्या किए जाने के अयोग्य है, संक्षेप में, यह अपरिभाष्य है। यह विचार के दूसरे अनेकों विषयों में से एक विशिष्ट एवं सरल विषय है। शुभ अपरिभाष्य है, इस दृष्टिकोण के दूसरे विकल्प केवल ये हैं कि या तो शुभ एक जटिल प्रत्यय है, अथवा नीतिशास्त्र के लिए कोई विशिष्ट प्रत्यय नहीं है। मूर मानता है कि परीक्षण के द्वारा दोनों का ही खण्डन किया जा सकता है। शुभ और अशुभ का अनेक वस्तुओं के विधेय के रूप में उपयोग किया जाता है। बड़े-बड़े आंतरिक - शुभों और बड़ी-बड़ी आंतरिक-बुराइयों के अनेकानेक वर्ग हैं। एकाध अपवाद को छोड़कर इनमें से सरलतम भी एक बहुत ही अधिक जटिल इकाई है, जो कि अंगों से बनी है। ये अंग अपने-आप में थोड़ा या कुछ भी मूल्य नहीं रखते हैं। इन सभी में एक विषय की चेतना निहित है और लगभग ये सभी इस विषय के प्रति एक सांवेगिक दृष्टिकोण रखते हैं। यद्यपि इस प्रकार उनमें कुछ सामान्य लक्षण पाए जाते हैं, लेकिन गुणों की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है, जिसमें वे एक-दूसरे से भिन्न हैं और जो उनके मूल्यांकन के लिए उतनी ही आवश्यक है। सभी का सामान्य लक्षण अपने-आप में पूर्ण शुभ या पूर्ण अशुभ नहीं प्रत्येक स्थिति में अपने गुण-दोष - दोनों को ही उपस्थिति में पाते हैं। - तथ्य है कि एक पूर्ण (इकाई) का मूल्य अपने अंगों के मूल्यों के योग से भिन्न हो सकता है। यही बात आंतरिक मूल्यों की खोज को जटिल बनाती है। इन पूर्ण इकाइयों को मूर आंगिक-एकता का नाम देता है। अपनी मान्यताओं को सिजविक के सिद्धांत पर लागू करते हुए मूर उस पर यह आक्षेप लगाता है कि वह आंगिक - एव. ता के सिद्धांत को स्वीकार करने में असमर्थ रहा। जन-साधारण की नैतिकता (सामान्य बुद्धि-नीति और सुखवाद के निर्णयों के बीच पाई जाने वाली जिस समानता का प्रतिपादन सिजविक ने किया था, वह केवल साधनात्मक निर्णयों से सम्बंधित -

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320