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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 125
सभ्यता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण के विकास के द्वारा धर्म निरपेक्ष (लौकिक ) ग्रंथों के अध्ययन को भी मान्यता प्राप्त हो गई, यह व्यक्ति की मानवीय कमजोरियों (पाप) से निर्णायक और कठिन लड़ाई थी, जिसके लिए मठ एक युद्धभूमि था। सबसे पहले मुख्य–मुख्य पापों की एक सूची बनाई गई, जिसने बाद में नैतिकता की मध्ययुगीन विवेचना में मुख्य स्थान ले लिया। प्रारम्भ में सामान्यतया ये घातक पाप आठ माने गए थे, मध्ययुगीन धर्मशास्त्रियों की रहस्यात्मक मंत्र-तंत्र के प्रति अभिरुचि के कारण यह सूची सात तक ही रह गई । इसके सम्बंध में अलग-अलग लेखकों ने अलग-अलग विवरण दिया है - 1 घमण्ड (गर्व), 2. धन की लोलुपता, · 3. क्रोध, 4. अति-भोजन और 5. व्यभिचार तो सभी की सूचियों में पाए जाते हैं, शेष दो या तीन का चुनाव निम्नलिखित में से किया गया है- 1. घृणा, 2. झूठा घमण्ड और अपेक्षाकृत एकाकीपन, 3. निराशा एवं 4. निरुत्साहयुक्त उदासीनता। संन्यस्त जीवन के नैतिक अनुभवों को विशेष रूप से प्रतिबिम्बित करने वाली समग्र सूची से हम क्या अनुमान कर सकते हैं, इसे ये परवर्ती प्रत्यय बताते हैं। विशेष रूप से नैतिक अवसाद या पतन की अवस्था को निरुत्साहयुक्त उदासीनता के रूप में बताया है, जिसे एक मानसिक रोग माना जा सकता है, जो कि कम से कम उस युग की दुनिया में एक मठवासी के लिए विशेष घटना ही होगा। नैतिक सिद्धांतों का विकास
जब पूर्व से आया हुआ संन्यासवाद पश्चिम में फैल रहा था और शक्ति प्राप्त कर रहा था, तब शुभाचरण में ईश्वर और मनुष्य के सम्बंध के प्रत्यय को लेकर ईसाई नैतिकता में एक भिन्न प्रकार का विकास हुआ, जो कि ईश्वरीय कृपा की निरपेक्षता के सिद्धांत के विरोध का परिणाम था और साधारणतया आगस्टिन के नैतिक प्रभाव के कारण उत्पन्न हुआ था। जस्टिन और ईश्वरीय कृपा के सिद्धांत के समर्थकों ने 'आस्था' 'कृपा' और 'उद्धार' की वास्तविकता को स्वीकार किया, किंतु इन प्रत्ययों पर आधारित धार्मिक दर्शन संकल्प - स्वातंत्र्य के स्पष्ट विरोध में खड़ा होने के लिए भी पूर्ण सक्षम' नहीं माना जा सकता है। ईसाई धर्म की शिक्षा का अधिकांश तो वस्तुतः उन अमर प्राणियों के लिए है, जिन्हें चयन की स्वतंत्रता प्राप्त है और इसीलिए गलत चयन के लिए दण्ड की भी पात्रता है। यह प्रतिफल या दण्ड के नियमों से अनुमोदित आचरण के सच्चे ईश्वरीय शाश्वत विधान की उद्घोषणा थी । यद्यपि यह स्पष्ट है कि इस कर्तव्य के बाह्य नियमवादी (विधिक) दृष्टिकोण के आधार पर ईसाई और गैर ईसाई