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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/134 पाण्डित्यवादी-पद्धति
अबेलार्ड का बर्नार्ड और सेन्ट विक्टोर के ह्यूगो से झगड़ा कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त रूप से रहा है। यह उस विरोध का उदाहरण है, जिसे हम मध्ययुगीन विचारों में द्वंद्वात्मक और रहस्यात्मक प्रयत्नों के बीच पाते हैं। द्वंद्वात्मक प्रयत्न शास्त्रीय आस्था की परम्परागत मान्यताओं द्वारा नियत सीमाओं के अंतर्गत बुद्धि को संतोष देने का ही एक प्रयास था, जबकि रहस्यात्मक प्रयत्न उन्हीं मान्यताओं में भावनात्मक एवं अंतर्मुखी धार्मिक चेतना के लिए पूर्ण समर्थन या धार्मिक ढांचे की खोज कर रहे थे। ये विरोधी प्रवृत्तियां 13 वीं शताब्दी में पाण्डित्यवादी दर्शन के उद्भव के पूर्व भी एवं उसके पश्चात् भी संघर्षरत थीं, किंतु पाण्डित्यवाद का प्रधान उद्देश्य तो इस एवं अन्य ऐसे ही विरोधों को समाप्त करना ही था। पीटर दी लाम्बर्ड (मृत्यु 1164)
हमें पीटर दी लाम्बर्ड के लिबरी सेन्टं शिम नामक ग्रंथ में एक समन्वयवादी संगतिपूर्ण प्रवृत्ति मिलती है। यह ग्रंथ पश्चिमी यूरोप में एक लम्बे समय तक व्यापक रूप में धार्मिक शिक्षा की प्रवेशिका पुस्तक के रूप में मान्य रहा। इसका ऐतिहासिक महत्त्व मुख्यतः उसकी पद्धति एवं निर्माणयोजना में है। इसका मुख्य उद्देश्य कैथोलिक चर्च में विकसित ईसाई धर्मशास्त्र की सारगर्भित, किंतु व्यापक व्याख्या देना है। यह धर्मग्रंथों एवं धर्मगुरुओं की वाणी के महत्वपूर्ण कथनों का संकलन है। इसमें पक्ष-विपक्ष की मुख्य युक्तियों के प्रत्येक महत्वपूर्ण वाक्य को दिया गया है और ऊपरी तौर से विद्वानों के द्वारा प्रयुक्त पदों के सूक्ष्म अर्थ भेद के द्वारा उत्पन्न आभासी विरोधों का समन्वय करने का प्रयास किया गया है। बाल की खाल निकालने की इस पाण्डित्यवादी कला के द्वार सदैव ही किसी न किसी रूप में उन आक्रमणों के लिए खुले थे, जो कि इसके परवर्ती विकास पर बेकन और दूसरे विचारकों के द्वारा किए गए, किंतु यदि भिन्न-भिन्न स्रोतों से आई इस सामग्री के आधार पर एक व्यवस्थित एवं संगतिपूर्ण सिद्धांत का निर्माण किया जाता, तो पाण्डित्यवाद अपरिहार्य बन जाता। अगली शताब्दियों में जब अरस्तू को एक ऐसे दार्शनिक के रूप में स्वीकार कर लिया गया, जिसके सिद्धांत मानवीय बुद्धि के क्षेत्र में आने वाले सभी विषयों पर निर्विवाद माने जाते थे, तो विशेषज्ञों की जटिलता के अधिक बढ़ जाने के कारण यह और भी अधिक अपरिहार्य हो गया। अरस्तू के