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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/180 (स्वभाविक) नहीं है और इससे आगे बढ़कर प्राकृतिक क्षुधाओं के प्राथमिक विषय सम्बंधी स्टोइकों के दृष्टिकोण को पुनर्जीवित करते हुए वह यह सिद्ध करता है कि सुख प्राथमिक विषय नहीं, यहां तक कि आवेग भी प्राथमिक नहीं हैं, जिन्हें शेफट्सबरी ने आत्मानुराग के रूप में स्वीकार किया था। किंतु ये तो उनके प्राकृतिक साध्य का ही एक परिणाम है। वस्तुतः, हमें आत्मप्रेम अर्थात् वह सामान्य इच्छा कि प्रत्येक व्यक्ति अपना आनंद या सुख चाहता है और उन विशेष अनुरागों, भावावेशों और क्षुधाओं में अंतर करना होगा, जो कि सुख की अपेक्षा दूसरे विषयों की ओर प्रवृत्त होती है और जिनकी संतुष्टि से सुख निर्मित होता है। क्षुधाओं आदि को रुचि लेने वाले प्रयत्नों के प्रत्यय से अनिवार्यतया एक भिन्न आवेग मानना होगा, क्योंकि यदि ऐसी कोई पूर्व अस्तित्ववान इच्छाएं नहीं हैं, तो आत्मप्रेम के लिए उनके पाने में कोई सुख नहीं होगा। उदाहरणार्थ, भूख का विषय खाना खाना है, न कि भोजन करने का सुख, इसलिए सही अर्थों में परोपकार की अपेक्षा भूख कोई स्वार्थ (आत्मप्रेम) नहीं है। ऐन्द्रिक सुख उस सुख का एक अंश है जिसके लिए आत्मप्रेम चेष्टा करता है, यह मानने पर यही बात प्रेम और सहानुभूति के सुखों के सम्बंध में भी कही जा सकती है। दैहिक क्षुधाएं (या अन्य विशेष इच्छाएं) आत्मप्रेम को अपना विषय नहीं बनाती है। इसे इस तथ्यों के द्वारा भी बताया जा सकता है कि उनमें से प्रत्येक किन्हीं विशेष परिस्थितियों में आत्मप्रेम के विरुद्ध हो सकती है। वस्तुतः मनुष्य के लिए अपने सच्चे हितों के हेतु आवेगों का त्याग बहुत ही साधारण बात है। इसके साथ ही हम ऐसे आचरण को एक बुद्धिमान प्राणी मनुष्य के लिए स्वाभाविक नहीं मानते हैं, वरन् हम क्षणिक आवेगों पर उसके द्वारा किए गए नियंत्रण को स्वाभाविक मानते हैं। इस प्रकार स्वाभाविक अनियंत्रित स्वार्थवाद एक मनोवैज्ञानिक कपोल कल्पना के रूप में बदल जाता है, क्योंकि (1) मनुष्य के प्राथमिक आवेगों को किसी भी अर्थ में पूरी तरह स्वहितवादी नहीं कहा जा सकता है, उनमें से किसी का भी सीधा लक्ष्य व्यक्ति का सुख नहीं होता है। जबकि कुछ की स्पष्ट प्रवृत्ति सामाजिक कल्याण की और होती है ओर कुछ की प्रवृत्ति आत्मरक्षण की ओर होती है। (2) एक व्यक्ति सतत् रूप से बिना आत्मसंयमी हुए स्वहितवादी नहीं हो सकता। वस्तुतः, हम यह कह सकते हैं कि एक स्वहितवादी निश्चित ही दोहरा आत्मसंयमी होगा, क्योंकि बौद्धिक आत्मप्रेम को न केवल दूसरे आवेगों पर नियंत्रण करना होगा, वरन अपने-आप पर भी नियंत्रण करना होगा, क्योंकि सुख उन आंतरिक भावनाओं से बना है, जो कि आत्मप्रेम के अतिरिक्त